गुरुराज प्रभु, सनातन संस्था: श्राद्ध हिन्दू धर्मावलम्बियों द्वारा किया जानेवाला एक कर्म है जो पितरों को याद करते हुए उनके प्रति श्रद्धा अभिव्यक्त किया जाता है। शास्त्रों के अनुसार जिन पितरों के कारण हम आज अस्तित्व में हैं तथा जिनके द्वारा हमें ज्ञान-विवेक और प्रतिष्ठा प्राप्त हुआ है, उन पूजनीय पितरों के श्राद्ध कर्म द्वारा श्रद्धा व्यक्त किया जाता है।
श्राद्ध शब्द की व्युत्पत्ति और अर्थ: ‘श्रद्धा’ इस शब्द से श्राद्ध शब्द का निर्माण हुआ है । भूलोक छोड़ कर गए हमारे माता-पिता ने हमारे लिए जो कुछ किया है उसका ऋण चुकाना असंभव है उनके लिए जो पूर्ण श्रद्धा के साथ किया जाता है वह श्राद्ध है ।
श्राद्ध शब्द की व्याख्या: ब्रह्म पुराण में श्राद्ध की व्याख्या इस प्रकार की गई है। देश, काल और योग्य स्थान को ध्यान में रखकर श्रद्धा और विधि से युक्त, पितरों के स्मरणार्थ ब्राह्मणों को जो दान दिया जाता है उसको श्राद्ध कहते हैं ।
श्राद्ध विधि का इतिहास: श्राद्ध विधि की मूल कल्पना ब्रह्म देवता के पुत्र अत्रि ऋषि की है । अत्रि ऋषि ने अपने निमी नामक वंशज को ब्रह्मदेव द्वारा बताई गई श्राद्ध विधि सुनाई । वह परम्परा आज भी चालू है । मनु ने प्रथम बार श्राद्ध क्रिया की । इसलिए मनु को श्राद्धदेव कहते हैं । लक्ष्मण और जानकी जी के साथ राम जब वनवास के लिए गए तब भरत वनवास में उनसे भेंट करते हैं और उनको पिता के निधन का समाचार देते हैं उसके पश्चात राम जी उसी जगह पिता का श्राद्ध करते हैं, ऐसा उल्लेख रामायण में है । ऋग्वेद के समय समिधा और पिंड इसकी अग्नि में आहुति देकर की हुई पितरों की पूजा अर्थात अग्नौकरण, पिंड की तिल के द्वारा शास्त्रोक्त विधि से की हुई पूजा अर्थात पिंड दान और ब्राह्मण भोजन इस क्रम से बनी श्राद्ध की तीन अवस्थाएं हैं । पूर्व समय की इन तीनों ही अवस्था को एकत्रित किया गया है । धर्म शास्त्र में यह श्राद्ध गृहस्थ आश्रम में रहने वाले लोगों को उनका कर्तव्य बताया गया है।